My sketchings

गजल

खौफ के मंजर 



रात की ख़ामोशी देती इस बात की गवाही है
शहर में आने वाली फिर कोई नई तबाही है

 सहमा-सा है हर मंज़र सनसनी-सी है फैली हुई
सुनसान रास्तों पे खड़ा कोई आतंक का राही है

यह सीमा पार के हमले हैं या अपनों की साज़िश
सारी रात कश्मीर ने इसी सोच में बिताई है

ज़ंग-ए-मैदान में पल-पल छलनी हो रहे सीने
मौत के सामानों ने ये कैसी होड़ मचाई है

‘एकता' अब तुमको भी हथियार उठाने होंगे
अब फ़ीकी पड़ने लगी तुम्हारी कलम की स्याही है!

          -एकता नाहर
   
           I am dedicating this poem to all my brother & sister of Kashmir.
           Jai hind

2 Response to "गजल"

  1. Raj says:
    October 30, 2010 at 3:42 AM

    ***घायल किया जब अपनों ने***

    घायल किया जब अपनों ने,
    तो गैरों से गिला किया करना,

    उठाये हैं खंजर जब अपनों ने,
    ज़िन्दगी की तमन्ना किया करना.!

  2. Dankiya says:
    November 12, 2010 at 11:25 PM

    sundar...

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